बॉस भोपाल शहर का बंदा हूँ मैं कहें तोह एक small town guy अपने rules बड़े clear थे. देखो, batting gloves और English willow bat मेरा था, तोह सीधी सी बात है captain तोह मुझे ही बनना था ना. अबे ऐसे क्यों देख रहे हो हाँ कोई बिगडैल अमीरजादा थोड़ी था मैं. पढाई की थी पूरी लगन से अब जाकर छठी क्लास में अव्वल आया और मुझे उन गर्मियों की छुट्टीयों में यह bat gloves मिले थे.
Actually वोह मेरा नहीं मेरा पापा का था, या कहूँ है. यादों में संजो के रखा है आज भी, एक एक winner prize. हम्म्म्म.... कितना अजीब लगता है सोच कर एक इतने बड़े क्रिक्केटर का बेटा हूँ और कभी क्रिकेट को अपना ही नहीं पाया. हाँ बचपन में रोड पे ईंट जमा कर खेला बहुत है पर अपने पापा जैसा कभी खेल नहीं पाया क्या करें हमारी लगन तोह बस किताबों में लगती थी ना खेल-कूद से पेट नहीं भरता यह कहीं न कहीं लोगों ने सिखा दिया था मुझे.
हम्म्म्म.... यार क्या दिन थे वोह भी... तब FaceBook का मतलब बस येही होता था की face हमेंशा book में घुसा रहता था तब ना तोह E-mail था न G-mail और खवाबों में थी जो Female उसको नालंदा स्कूल के पास बूढ़े अंकल की दूकान से cream letter pad खरीद के पन्ने पे पन्ने पे पन्ने लिखते थे. फिर postman का इन्तेज़ार करते थे. कभी LOVE @ first sight, कभी दिल टूटता था, और कभी कोई नोटबुक देते समय उसकी ऊँगली छु जाती थी तोह महीना भर सपने आते थे.......... अच्छे दिन थे कमबख्त अच्छे दिन थे.
वैसे क्लास टेस्ट में लगातार first आने पे मम्मी ने pocket money देना शुरू कर दिया पूरे 50 रुपया महीना. जिस दिन मिलती थी लगता था शेन्शाह हो गए हों. चल दिए 10 नंबर मार्केट की रोड पे एथन में, चक्की के बाजू वाले प्रेम restaurant में एक टिक्की एक Thumbs Up फिर वोह WWF के stickers ढूँढना पूरे बाजार में. अरे भाई दूसरों से अलग भी तोह होना चाहिए ना.
जब थोडा बड़े हुए तोह वोह pocket money जगजीत सिंह की ग़ज़लों की cassettes में जाने लगी. आज भी याद है सर्दियों में वोह देर रात तक गज़ले सुनना. “बात निकलेगी तोह फिर....” याद है? याद है न बेटा. वोह बात भी देखो कमबख्त कितना दूर चली गयी. नानी के यहाँ जाते थे गर्मियों में वहाँ मौसी जो आया करती थी छुट्टियाँ मानाने. वोह शाम को हम सब खेलते थे और मौसी नानी मिलके कभी अचार और कभी सोयाबीन की बड़ी बनाती थी. शाम ही को 4 बजे कुल्फी वाला आता था बड़ी बड़ी मूछें. आस पास बहुत दोस्त बना लिए थे वहाँ. पर किसको पता था की उनमे से एक दोस्ती बहुत खास हो जायेगी.
खैर पहले दादा जी साथ रहते थे. अरे रुको नहीं नहीं जैसा सोच रहे हो वैसा कुछ नहीं. वोह तोह बस अपने बचपन की यादों के साथ रहने चाहते थे सो वोह ग्वालियर चले गए अपने पुराने घर. वोही घर जहाँ एक बल्ब की फैक्ट्री थी और मैं बचपन में जिसके नीम के आस पास घुटने घुटने चलता था. वैसे जब तक दादा जी थे मुझे बहुत अच्छा लगता था उनके पास कहानियों की पोटली जो थी और कहानी भी राजकुमार वाली नहीं असल जिंदगी की बातें जो उन्होंने अपनी पूरी life experiences देखे वोह किस्से. आज भी बहुत याद आते हैं वोह शाम की उनकी coffee और पापा और उनकी बैठक.
ग्वालियर से दादा जी नीबूं लाते थे मम्मी नीबूं सूखाती थी अचार के लिए. गर्मी में वोह ठण्डाई या खस का शरबत बनवाते थे जाड़े में मूंगफली खाते थे. वोह रजाई में अदरक की चाय पीते थे हम सब और देखते थे चित्रहार और देख भाई देख या फिर श्रीमान श्रीमती. दशहरें पे रावण जलता था बित्तन (bittan) मार्केट पे बड़ा सा जाते थे पापा के साथ बिना डर के यह terrorism वाला scene नहीं था ना उस वक्त. अच्छे दिन थे कमबख्त अच्छे दिन थे.
आज खुदको देखता हूँ मैं तनहा लोगों के शहर में तनहा रहता हूँ मैं. कभी खुदसे छुपना चाहता हूँ अभी सिर्फ खुदसे मिलना चाहता हूँ मैं. देर से सोता हूँ देर से उठता हूँ कोई खाना बना देता है कोई कपडे धोकर डाल देता है. मैं.... मैं बस चलता रहता हूँ लाइफ की conveyer belt पर, एयरपोर्ट पे खो गए किसी suitcase की तरह..... अकेला. कभी कभी बड़ी खूबसूरत लगती है यह तन्हाई और कभी कभी जैसे कातिल की निगाहों से मुझसे बात करती हैं या शायद you know शिकायत बहुत करता हूँ मैं. आज बैठा हूँ मैं खिडकी के पास सुबह के 5 बजे. ना जाने कितने टाइम से अपने साथ यूँ नहीं बैठा जैसे कितने दिनों बाद मेरे दोस्त शहर की और खुदकी आवाजें सुन रहा हूँ सड़क पे बेतरतीब और बेमतलब चलती गाड़ियों के होर्न, पास वाली पटरी से निकलती एक्सप्रेस ट्रेन और उनके गूंझते होर्न. लगता है कितनी सदियाँ बीत गई मुझ जैसे लेट लतीफ़ आलसियों ने सुबह का हिन्दुस्तान तोह जैसे देखा सुना ही नहीं. पहले मेरी सुबह किसी और ही आवाज़ से होती थी दूर सुबह सुबह मंदिर में बालाजी सुप्रभात चलता था और मैं झट से स्कूल के लिए तैयार होने लग जाता था और फिर वोह “ना नाना नाणा... नाना ना,,,, ह्म्म्म ह्म्म्म्म्म्म्म्म.... यह आकाश वाणी है अब आप देवकी नंदन पाण्डेय से समाचार सुनिए. हा हां आज फिर वोही धुन गुनगुनाने लागा हूँ ना जाने कितने साल बाद खुदसे बातें कर रहा हूँ याद कर रहा हूँ वोह सब जो बहुत अनमोल है मेरे लिए.
अरे शायद आपको पता हो अभी हाल ही में मैं बंगलोर होकर आया अपनी MBA की internship करने गया था वहाँ. भाई प्यार हो गया मुझे उस शहर से बहुत वोह सुना होगा ना आपने “m a small town guy she’s a uptown girl” बस हम छोटे शहर वालों को ऐसी ही बड़ी बड़ी चीज़ों से प्यार हो जाता है खैर मैं भी वहाँ दफ्तर जाने लगा था “दफ्तर” कौन कहता है अब यह. पापा भी जाते हैं दफ्तर एक मोटी सी सरकारी डायरी लेकर. घर पे वहाँ से अक्सर फोन पे बात करता था. मम्मी ने SMS करना भी सीख लिया है और तोह और FACEBOOK account भी बना लिया है. कभी कभी अचानक वहाँ meeting में मुस्कुरा पड़ता था देखता था मम्मी का scrap या chat आया होता था “ बेटा how are you?” यह देश सचमुच बदल रहा है मेरे दोस्त मम्मी का scrap वोह भी अंग्रेजी में. एक टाइम था ना मोबाइल था न यह SMS डॉक्टर की clinic की तरह दो मिनट बात करने के लिए PCO में wait करना पड़ता था. एक टाइम थे जब अंतर्देसी पत्र पे चिठ्ठी लिखते थे जब सारा परिवार साथ में खाना खाता था. अक्सर सोचता हूँ क्या मैं इतना बदल गया या यह दुनिया ही बदल गयी...
बस अभी के लिए इतना ही.इतनी तोह नहीं मेरी कहानी बहुत कुछ है बताने को अभी, थोडा दर्द है थोड़ी खुशी है पर फिर कभी...
बस मैं old fashioned थोडा सा conservative और दूरदर्शन generation का लड़का हूँ. मिलने की उम्मीद करता हूँ बिछडने से डरता हूँ सपने देखता हूँ हर सुबह जिंदगी एक नई पहेली एक नई मुश्किल मेरे दरवाजे डाल जाती है. हर दिन वक नई पहेली सुलझाने जो निकलता हूँ. मैं कोई और थोड़ी हूँ आपके जैसा ही हूँ मैं आपकी जुबां बोलता हूँ मैं आपके पड़ोस में ही रहता हूँ मैं आपके मोहल्ले में ही तेहेलता हूँ मैं मेरी आँखों से देकिये आपकी ही जिंदगी जीता हूँ मैं बस भोपाल शहर का बंदा हूँ मैं
- रोहन सिंह
वैसे आपको बता दूँ उस खास इंसान से जरुर मिलवाऊंगा मैं आपको अपनी अगली POST में बस इंतज़ार करिये कुछ दिनों का, धन्यवाद.